[1] [ऋग्वेद मंडल १, ५० सूक्तस्यानन्तरम्][ऋग्वेद अष्टक १, अध्याय ४, ८ वर्गानन्तरम्] |
श॒नैश्चि॑दद्य सूर्येणाऽऽदि॒त्येन॒ सही᳚यसा | अ॒हं यश॑स्विनाम्॒ यशो᳚ वि॒द्यारू᳚पमु॒पा द॑दे ||1|| |
उ॒द्यन्न॒द्य वि नो᳚ भज पि॒ता पु॒त्रेभ्यो॒ यथा᳚ | दी॒र्घा॒यु॒त्वस्य॒ हेशि॑षे॒ तस्य॑ नो धेहि सूर्य ||2|| |
उ॒द्यन्तं᳚ त्वा मित्रमह आ॒रोह᳚न्तं विचक्षण | पश्ये᳚म श॒रदः॑ श॒तम् जीवे᳚म श॒रदः॑ श॒तम् ||3|| |
[2] [ऋग्वेद मंडल १, १९१ सूक्तस्यानन्तरम्][ऋग्वेद अष्टक २, अध्याय ५, १६ वर्गानन्तरम्] विषघ्नसूक्तम् |
मा बि॑भे॒र्न म॑रिष्यसि॒ परि॑ त्वा पामि स॒र्वतः॑ | घ॒नेन॒ हन्मि॒ वृश्चि॑क॒महिं᳚ द॒ण्डेनाग॑तम् ||1|| |
आ॒दि॒त्यरथ॒वेगे᳚न वि॒ष्णुबा᳚हुब॒लेन॑ च | ग॒रुड॑प॒क्षनि॑पाते॒न भू॒मिं ग॑च्छ म॒हाय॑शाः ||2|| |
ग॒रुड॑स्य॒ पात॑मात्रे॒ण त्र॒यो लो᳚काः प्र॒कम्पि॑ताः | प्र॒कम्पि॒ता म॒ही सर्वा᳚ स॒शैल॑वन॒कान॑ना ||3|| |
ग॒गनं॒ नष्ट॑चन्द्रा॒र्कं ज्यो॒तिषं᳚ न प्र॒काश॑ते | दे॒वता॒ भय॑भीता॒श्च मा॒रुतो᳚ न प्ल॒वाय॑ति | मा॒रुतो᳚ न प्ल॒वाय॒त्यों नमः॑ ||4|| |
भो स॒र्पभ॑द्र भ॒द्रं ते᳚ दू॒रं ग॑च्छ म॒हाविष | ज॒न्मे᳚ज॒यस्य॑ यज्ञा॒न्ते, आ॒स्तीक॑वच॒नं स्म॑र ||5|| |
आ॒स्तीक॒वच॑नं॒ श्रुत्वा᳚ यः॒ सर्पो᳚ न नि॒वर्त॑ते | शत॑धा॒ भिद्य॑ते मू॒र्ध्नि शिं॒शवृ॑क्षफ॒लं य॑था ||6|| |
न॒र्मदा॒यै न॑मः प्रा॒तर्न॒र्मदा᳚यै न॒मो नि॑शि | नमो᳚ऽस्तु॒ नर्म॑दे तु॒भ्यं त्रा॒हि मां᳚ विष॒सर्प॑तः ||7|| |
यो ज॑र॒त्कारु॑णा जा॒तो ज॒रत्का᳚र्वां म॒हाय॑शाः | तस्य॑ स्म॒राभि॑ भद्रं॒ ते दू॒रं ग॑च्छ म॒हाविष ||8|| |
असि॑तिं॒ चार्थ॑सिद्धिं॒ च सुनीतिं᳚ चापि॑ यः स्म॑रेत् | दि॒वा वा॒ यदि॑ वा रा॒त्रौ ना॒स्ति सर्प॑भयं॒ भवेत् ||9|| |
अग॑स्ति॒र्माध॑वश्चै॒व मु॒चुकु᳚न्दो म॒हामु॑निः | कपि॑लो॒ मुनि॑रास्ती॒कः प॒ञ्चैते᳚ सुख॒शायि॑नः ||10|| |
[3] ऋषिः: हिरण्यगर्भः देवता: १२:कुहूः, ३४:अनुमतिः, ५८:धाता छन्दः: १,२,६,८:त्रिष्टुप्, ५:गायत्रि, ३,४,७:अनुष्टुप् [ऋग्वेद मंडल २, ३२ सूक्तस्यानन्तरम्][ऋग्वेद अष्टक २, अध्याय ७, १५ वर्गानन्तरम्] |
कु॒हूम॒हं सु॒वृतं᳚ विद्म॒नाप॑सम॒स्मिन् य॒ज्ञे सु॒हवां॒ जोह॑वीमि | सा नो᳚ ददातु॒ श्रव॑णं पितॄ॒णां तस्यै᳚ ते देवि ह॒विषा᳚ विधेम ||1|| |
कु॒हूर्दे॒वाना᳚म॒मृत॑स्य॒ पत्नी᳚ ह॒व्या नो᳚, अ॒स्य ह॒विषः॑ शृणोतु | सं दा॒शुषे᳚ किरतु॒ भूरि॑ वा॒मं रा॒यस्पोषम्॒ यज॑माने दधातु ||2|| |
अनु॑ नो॒ऽद्यानु॑मतिर्य॒ज्ञं दे॒वेषु॑ मन्यताम् | अ॒ग्निश्च॑ हव्य॒वाह॑नो॒ भव॑तं दा॒शुषे॒ मयः॑ ||3|| |
अ॒न्विद॑नुमते॒ त्वं मन्या᳚सै॒ शं च॑ नस्कृधि | क्रत्वे॒ दक्षा᳚य नो हिनु॒ प्र ण॒ आयूं᳚षि तारिषत् ||4|| |
धा॒ता द॑दातु नो र॒यिमीशा᳚नो॒ जग॑त॒स्पतिः॑ | स नः॑ पू॒र्णेन॑ वावनत् ||5|| |
धा॒ता द॑दातु दा॒शुषे॒ वसू᳚नि प्र॒जाका᳚माय मी॒ळ्हुषे᳚ दुरो॒णे | तस्मै᳚ दे॒वा, अ॒मृताः॒ सं व्य॑यन्ता॒म् विश्वे᳚ दे॒वासो॒, अदि॑तिः स॒जोषाः᳚ ||6|| |
धा॒ता द॑दातु दा॒शुषे॒ प्राचीं॒ जी॒वातु॒मक्षि॑ताम् | व॒यं दे॒वस्य॑ धीमहि सुम॒तिं वा॒जनी᳚वतः ||7|| |
धा॒ता प्र॒जाना᳚मु॒त रा॒य ई᳚शे धा॒तेदं विश्वं॒ भुव॑नं जजान | धा॒ता कृ॒ष्टीरनि॑मिवा॒भिच॑ष्टे धा॒त्र इद्ध॒व्यं घृ॒तव॑ज्जुहोत ||8|| |
[4] [ऋग्वेद मंडल २, ४३ सूक्तस्यानन्तरम्][ऋग्वेद अष्टक २, अध्याय ८, १२ वर्गानन्तरम्] |
भ॒द्रं व॑द दक्षिण॒तो भ॒द्रमु॑त्तर॒तो व॑द | भ॒द्रं पु॒रस्ता᳚न्नो वद भ॒द्रं प॑श्चात् क॒पिञ्ज॑ल ||1|| |
भ॒द्रं व॑द पु॒त्रैर्भ॒द्रं व॑द गृ॒हेषु॑ च | भ॒द्रम॒स्माकं᳚ नो वद भ॒द्रं नो॒, अभ॑यं वद ||2|| |
भ॒द्रम॒धस्ता᳚न्नो वद भ॒द्रमु॒परि॑ष्टान्नो वद | भ॒द्रंभ॑द्रं न॒ आ व॑द भ॒द्रं नः॑ सर्व॒तो व॑द ||3|| |
अ॒स॒प॒त्नः पु॒रस्ता᳚न्नः शि॒वं द॑क्षिण॒तस्कृ॑धि | अ॒भ॑यं॒ सत॑तं प॒श्चाद् भ॒द्रमु॑त्तर॒तो गृ॒हे ||4|| |
यौ॒वना᳚नि म॒हय॑सि जि॒ग्युषा᳚मिव॒ दुन्दु॑भिः | शकुम्॑त॒क प्र॑दक्षि॒णं श॒तप॑त्रा॒भि नो᳚ वद ||5|| |
आ॒वदम्॒स्त्वं श॑कुने भ॒द्रमा व॑द तू॒ष्णीमासी᳚नः सुम॒तिं चि॑किद्धि नः | यदु॒त्प॒तन् वद॑सि कर्क॒रिर्य॑था बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे᳚ सु॒वीराः᳚ ||6|| |
[5] [ऋग्वेद मंडल ५, ४४ सूक्तस्यानन्तरम्][ऋग्वेद अष्टक ४, अध्याय २, २५ वर्गानन्तरम्] |
जा॒गर्षि॒ त्वं भुव॑ने जातवेदो जा॒गर्षि॒ यत्र॒ यज॑ते ह॒विष्मा॑न् | इ॒दं ह॒विः श्र॒द्धधा᳚नो जुहोमि॒ तेन॑ पासि॒ गुह्यं॒ नाम॒ गोना᳚म् ||1|| |
[6] [ऋग्वेद मंडल ५, ४९ सूक्तस्यानन्तरम्][ऋग्वेद अष्टक ४, अध्याय ३, ३ वर्गानन्तरम्] |
सू॒क्तान्ते॒ऽस्येत्तृ॑णान्य॒ग्नावि॒रिणे᳚ वोद॒केऽपि॑ व [सू॒क्तान्ते᳚तृ॑णान्य॒ग्ना वरण्ये᳚ वोद॒केऽपि॑ व] | यद॒स्तृणै᳚रधीतं तत् तृ॒णानि॑ भव॒ति ध्रुवम् [यस्तृणै᳚रध्य॒यन॒न्त दधीतं᳚ स्तृ॒णानि॑ भव॒ते भ॑व] ||1|| |
वापी᳚कू॒पत॑डागा॒नाम् स॒मुद्रं᳚ गच्छ॒ स्वाहा᳚ [अ॒ग्निं ग॑च्च॒ स्वाहा᳚] ||2|| |
[7] [ऋग्वेद मंडल ५, ५१ सूक्तस्यानन्तरम्][ऋग्वेद अष्टक ४, अध्याय ३, ७ वर्गानन्तरम्] |
स्व॒स्त्यय॑नं॒ तार्क्ष्य॒मरि॑ष्टनेमिम् म॒हद्भू᳚तं वाय॒सं दे॒वता᳚नाम् | अ॒सु॒र॒घ्नमिन्द्र॑सखं स॒मत्सु॑ बृ॒हद्यशो॒ नाव॑मि॒वा रु॑हेम ||1|| |
अं॒हो॒मुच॑मां॒गिर॑सम्॒ गयं᳚ च स्व॒स्त्या᳚त्रे॒यं मन॑सा च॒ तार्क्ष्य᳚म् | प्रय॑तपाणिः शर॒णं प्र प॑द्ये स्व॒स्ति स᳚म्बा॒धेष्वभ॑यं नो, अस्तु ||2|| |
[8] [ऋग्वेद मंडल ५, ८४ सूक्तस्यानन्तरम्][ऋग्वेद अष्टक ४, अध्याय ४, २९ वर्गानन्तरम्] |
वर्ष᳚न्तु ते विभावरि दि॒वो, अ॒भ्रस्य॑ वि॒द्युतः॑ | रोह᳚न्तु॒ सर्व॑बीजा॒न्यव॑ ब्रह्म॒द्विषो᳚ जहि ||1|| |
[9] [ऋग्वेद पञ्चममंडलस्यान्ते][ऋग्वेद अष्टक ४, अध्याय ४, ३४ वर्गानन्तरम्] |
आ ते॒ गर्भो॒ योनि॑मैतु॒ पुमा॒न् बाण॑ इ॒वेषु॑धिम् | आ वी॒रो जा᳚यताम् पु॒त्रस्ते᳚ दश॒मास्यः॑ ||1|| |
क॒रोमि॑ ते प्राजाप॒त्यमा गर्भो॒ योनि॑मैतु॒ ते | अनू॒नः पूर्णो᳚ जायतामश्लो॒णोऽपि॑शाचधी॒तः ||2|| |
पुमां᳚स्ते पु॒त्रो नारि॑ तम् पुमा॒ननु॑जायताम् | तानि॑ भ॒द्राणि॒ बीजा᳚न्यृ॒षभा᳚ जनयन्ति॒ नौ ||3|| |
यानि॑ भ॒द्राणि॒ बीजा᳚न्यृ॒षभा᳚ ज॒नय᳚न्ति॒ नः | तैस्त्वं᳚ पु॒त्रान् वि᳚न्दस्व॒ सा प्रसू᳚र्धेनु॒का भ॑व ||4|| |
कामः॒ समृ॑द्ध्यतां म॒ह्यम॒परा᳚जित॒मेव॑ मे | यं कामं॒ काम॑ये दे॒व तं मे वा᳚यो स॒मर्ध॑य ||5|| |
[10] [ऋग्वेद पञ्चममंडलस्यान्ते][ऋग्वेद अष्टक ४, अध्याय ४, ३४ वर्गानन्तरम्] |
अ॒ग्निरै᳚तु प्रथ॒मो दे॒वता᳚नां॒ सोऽस्यै᳚ प्र॒जां मु᳚ञ्चतु॒ मृत्यु॑पाशात् | तद॑यं॒ राजा॒ वरु॒णोऽनु॑मन्य॒तां यथे॒यं स्त्री॒ पौत्र॑मघं॒ न रो᳚दात् ||1|| |
इ॒माम॒ग्निस्त्रा᳚यतां॒ गार्ह॑पत्यः प्र॒जाम॒स्मै न॑यतु दी॒र्घमायुः॑ | अ॒शू॒न्योप॑स्था॒ जीव॑तामस्तु मा॒ता पौत्र॑मान॒न्दम॒भि प्रबु॑द्ध्यतामि॒यम् ||2|| |
मा ते॒ गृहे॒ निशि॑ घोष उ॒त्थादन्य॑त्र॒ त्वद्रुद॑त्यः॒ सं वि॑शन्तु | मा त्वं॒ विके᳚श्यु॒र आव॑धिष्ठा जी॒वप॑त्नी॒ पति॑लो॒के वि॑राज पश्य᳚न्ती प्र॒जं सु॑मन॒स्यमा᳚ना ||3|| |
अप्र॑ज॒स्तां पौत्र॑मृ॒त्युं पा॒प्मान॑मु॒त वा᳚घम् | शी॒र्ष्णः स्र॒जमि॑वोन्मु॒च्य द्विष॑द्भ्यः॒ प्रति॑मुञ्चामि पा॒शम् ||4|| |
दे॒वकृ॑तं ब्राह्म॒णं क॒ल्पमा᳚नं॒ तेन॑ हन्मि योनि॒षदः॑ पिशा॒चान् | क्र॒व्या॒दो मृ॒त्यून॑ध॒रान् पा᳚तयामि धी॒र्घमायु॒स्तव॑ जीवन्तु पु॒त्राः ||5|| |
[11] श्रीसूक्तम् [आनन्द कर्दम चिक्लीताः श्रीपुत्राः श्रीरग्निश्च आद्याः तिस्रो, अनुष्टुभः, चतुर्थी बृहती, पंचमी षष्थ्यौ त्रिष्टुभौ, ततो, अष्टौ अनुष्टुभः, अन्त्या, आस्तारपंक्तिः] [ऋग्वेद मंडल ५, ८७ सूक्तस्यानन्तरम्][ऋग्वेद अष्टक ४, अध्याय ४, ३४ वर्गानन्तरम्] |
हिर᳚ण्यवर्णां॒ हरि॑णीं सु॒वर्ण॑रज॒तस्र॑जाम् | च॒न्द्रां हि॒रण्म॑यीं ल॒क्ष्मीं जात॑वेदो म॒ आव॑ह ||1|| |
तां म॒ आ व॑ह॒ जातवेदो ल॒क्ष्मीमन॑पगा॒मिनी᳚म् | यस्यां॒ हिर᳚ण्यं वि॒न्देयं॒ गामश्वं॒ पुरु॑षान॒हम् ||2|| |
अ॒श्व॒पू॒र्वां र॑थम॒ध्यां ह॒स्तिना᳚द प्र॒बोधि॑नीम् | श्रियं᳚ दे॒वीमुप॑ ह्वये॒ श्रीर्मा᳚ दे॒वी जु॑षताम् ||3|| |
कां॒ सो॒स्मि॒तां हिर᳚ण्यप्रा॒कारा᳚ मा॒र्द्रां ज्वल᳚न्तीं तृ॒प्तां त॒र्पय᳚न्तीम् | प॒द्मे॒ स्थि॒तां प॒द्मव᳚र्णां॒ तामि॒होप॑ ह्वये॒ श्रिय᳚म् ||4|| |
च॒न्द्रां प्र॑भा॒सां य॒शसा॒ ज्वल᳚न्तीं॒ श्रियं᳚ लो॒के दे॒वजु॑ष्टामुदा॒राम् | तां प॒द्मिनी᳚मीं॒ शर॑णम॒हं प्र प॑द्येऽल॒क्ष्मीर्मे᳚ नश्यतां॒ त्वां वृ॑णे ||5||[व:१] |
आ॒दि॒त्यव᳚र्णे॒ तप॒सोऽधि॑ जा॒तो वन॒स्पति॒स्तव॑ वृ॒क्षोऽथ बि॒ल्वः | तस्य॒ फला᳚नि॒ तप॒सा नु॑दन्तु मा॒या न्त॑रा॒ याश्च॑ बा॒ह्या, अ॑ल॒क्ष्मीः ||6|| |
उपै᳚तु॒ मां दे᳚वस॒खः की॒र्तिश्च॒ मणि॑ना स॒ह | प्रा॒दु॒र्भू॒तोऽस्मि॑ राष्ट्रे॒ऽस्मिन् की॒र्तिमृ॑द्धिं द॒दातु॑ मे ||7|| |
क्षुत्पि॑पा॒साम॑लां ज्ये॒ष्ठाम॑ल॒क्ष्मीं ना᳚शया॒म्यह᳚म् | अभू᳚ति॒मस॑मृद्धिं॒ च सर्वां॒ निर्णु॑द मे॒ गृहा᳚त् ||8|| |
गंध॑द्वा॒रां दु॑राध॒र्षां नि॒त्यपु॑ष्टां करी॒षिणी᳚म् | ई॒श्वरीं᳚ सर्व॑भूता॒नां तामि॒होप॑ ह्वये॒ श्रिय᳚म् ||9|| |
मन॑सः॒ काम॒माकू᳚तिं वा॒चः स॒त्यम॑शीमहि | प॒शू॒नां रूप॑मन्न॒स्य मयि॒ श्रीः श्र॑यतां॒ यशः॑ ||10||[व:२] |
कर्द॑मे॒न प्र॑जा भू॒ता म॒यि स᳚म्भव॒ कर्द॑म | श्रियं᳚ वा॒सय॑ मे कु॒ले मा॒तरं᳚ पद्म॒मालि॑नीम् ||11|| |
आपः॒ सृज᳚न्तु॒ स्निग्धा᳚नि॒ चिक्ली᳚त॒ वस॑ मे गृ॒हे | नि च॑ दे॒वीं मा॒तरं॒ श्रियं᳚ वा॒सय॑ मे कु॒ले ||12|| |
आ॒र्द्रां पु॒ष्करि॑णीं पु॒ष्टिं सु॒वर्णा᳚ हेम॒मालि॑नीम् | सू॒र्यां हि॒रण्म॑यीं लक्ष्मीं॒ जात॑वेदो म॒ आवह ||13|| |
आ॒र्द्रां यः॒ करि॑णीं य॒ष्टिं पि॒ङ्गलां᳚ पद्म॒मालि॑नीम् | च॒न्द्रां हि॒रण्म॑यीं ल॒क्ष्मीं जात॑वेदो म॒ आव॑ह ||14|| |
तां म॒ आव॑ह जातवेदो ल॒क्ष्मीमन॑पगा॒मिनी᳚म् | यस्यां॒ हिर᳚ण्यं॒ प्रभू᳚तं॒ गावो᳚ दा॒स्योऽश्वा᳚न् वि॒न्देयं॒ पुरु॑षान॒हम् ||15||[व:३] |
यः शुचिः॒ प्रय॑तो भू॒त्वा जु॒हुया᳚दाज्य॒ मन्व॑हम् | श्रियः॑ प॒ञ्चद॑शर्चं॒ च श्री॒कामः॑ सत॒तं ज॑पेत् ||16|| |
पद्मा᳚न॒ने प॑द्म॒विप॑द्मप॒त्रे पद्म॑प्रिये॒ पद्म॒दला᳚यता॒क्षि | विश्व॑प्रिये॒ विष्णुमनो᳚नुकू॒ले त्वत्पा᳚दप॒द्मं मयि॒सं नि॑ धत्स्व ||17|| |
प॒द्मा॒न॒ने प॑द्म ऊ॒रू प॒द्माक्षी᳚ पद्म॒सम्भ॑वे | तन्मे᳚ भ॒जसि॑ पद्मा॒क्षी॒ ये॒न सौ᳚ख्यं ल॒भाम्य॑हम् ||18|| |
अश्व॑दा॒यी गो᳚दा॒यी ध॒नदा᳚यी म॒हाध॑ने | धनं᳚ मे॒ जुष॑तां दे॒वि स॒र्वका᳚मांश्च॒ देहि॑ मे ||19|| |
पुत्रपौ॒त्र ध॑नं धा॒न्यं ह॒स्त्यश्वा᳚दिग॒वे र॑थम् | प्र॒जा॒नां भ॑वसि मा॒ता॒, आ॒युष्म᳚न्तं क॒रोतु॑ मे ||20|| |
धन॑म॒ग्निर्ध॑नं वा॒युर्धनं॒ सूर्यो᳚ धनं॒ वसुः॑ | धन॒मिन्द्रो॒ बृह॒स्पति॒र्वरु॑णं॒ धन॒मस्तु॑ ते ||21||[व:४] |
वैन॑तेय॒ सोमं᳚ पिब॒ सोमं᳚ पिबतु वृत्र॒हा | सोमं॒ धन॑स्य सो॒मिनो॒ मह्यं॒ ददा᳚तु सो॒मिनः॑ ||22|| |
न क्रोधो न च॑ मात्स॒र्यं॒ न॒ लोभो᳚ नाशु॒भा म॑तिः | भव᳚न्ति॒ कृत॑पुण्या॒नां भ॒क्त्या श्रीसू᳚क्त॒ जापि॑नाम् ||23|| |
सरसिजनिलये सरो᳚जह॒स्ते धवलतरांशुक ग॒न्धमा᳚ल्यशो॒भे | भगवति हरिव॒ल्लभे᳚ मनो॒ज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्र॑ सीद म॒ह्यम् ||24|| |
विष्णु॑प॒त्नीं क्ष॑मां दे॒वीं मा॒धवीं᳚ माध॒वप्रि॑याम् | लक्ष्मीं᳚ प्रि॒यस॑खीं दे॒वीं न॒माम्य॑च्युत॒वल्ल॑भाम् ||25|| |
म॒हा॒ल॒क्ष्म्यै च॑ वि॒द्महे᳚ विष्णुप॒त्नी च॑ धीमहि | तन्नो᳚ लक्ष्मीः प्रचो॒दया᳚त् ||26|| |
श्री॒वर्च॑स्व॒मायु॑ष्य॒मारो᳚ग्य॒मावि॑धा॒च्चोभ॑मानं मही॒यते᳚ | ध॒नं धा॒न्यं प॒शुं ब॒हुपु॑त्रला॒भं श॒तसं॑वत्स॒रं दी॒र्घमायुः॑ ||27||[व:५] |
[12] [श्रीसूक्तस्यान्ते] |
विश्वेश्वर विरूपाक्ष विश्वरूप सदाशिव | शरणं भव भूतेश करुणाकर शंकर ||१|| |
हर शंभो महादेव विश्वेशामर वल्लभ | शिवशङ्कर सर्वात्मन् नीलकण्ठ नमोऽस्तु ते ||२|| |
मृत्युञ्जयाय रुद्राय नीलकण्ठाय शंभवे | अमृतेशाय शर्वाय महादेवाय ते नमः ||३|| |
एतानि शिवनामानि यः पठेन्नियतः सकृत् | नास्ति मृत्युभयं तस्य पापरोगादि किंचन ||४|| |
[13] [श्रीसूक्तस्यान्ते] |
यज्ञेशाच्युत गोविन्द माधवानन्त केशव | कृष्ण विष्णो हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते ||१|| |
कृष्णाय गोपिनाथाय चक्रिणे मुरवैरिणे | अमृतेशाय गोपाय गोविन्दाय नमो नमः ||२|| |
[14] [श्रीसूक्तस्यान्ते] |
उग्रायोघ्राघ नाशाय भीमाय भय हारिणे | ईशानाय नमस्तुभ्यं पशूनां पतये नमः ||१|| |
दशसप्त च नामानि मंडलान्तेषु यः पठेथ् | सशिवस्य पदं गत्वा शिवलोके महीयते ||२|| |
नास्ति मृत्युभयं तस्य पापरोगादि किंचन | हरिहर शिवशं कर विठ्ठल वामन वासुदेव विराम स्थावत्, विश्वेश्वराय नमः ||३|| |
[15] [ऋग्वेद मंडल ७, ३५ सूक्तस्यानन्तरम्][ऋग्वेद अष्टक ५, अध्याय ३, ३० वर्गानन्तरम्] |
शंव॑तीः॒ पार॑यन्त्ये॒ते तं पृ॑च्छन्ति॒ वचो᳚ यु॒जा᳚| अ॒भ्यार्ं तं य॒माके᳚तुं य ए॒वेदमिति॒ ब्रव॑न् ||१|| |
भा॒साके᳚तुं परि॒स्रुतं॒ भर॑तीर्ब्रह्मवर्धनः | सं॒जा॒ना॒ना मही माता ए॒वेदमिति॒ ब्रव॑त् ||२|| |
इन्द्रस्तं किं वि॒भुं प्र॒भुं मनुने॒यं सर॑स्वतीम् | येन॑ सू॒र्य॒मरो᳚चय॒द्येने॒मे रोद॑सी, उ॒भे ||३|| |
जुषस्वा᳚ग्ने, अ॒ङ्गरः क॒ण्वं मेध्या᳚तिथिम् | मा त्वा॒ सोम॑स्य॒ बृ॑ह॒त् सु॒तस्य॒ मधु॑मत्तमः ||४|| |
त्वम॑ग्ने॒, अङ्गि॑रः॒ शोच॑स्व दे॒व॒वत॑मः | आ श॑तम॒ शंत॑माभिर॒भिष्टि॑भिः शा॒न्तिः स्व॒स्तम॑कुर्वत ||५|| |
श॑ नः॒ कनि॑क्रद् दे॒वः प॒र्जन्यो᳚, अ॒भि व॑र्षतु | शं नो॒ द्यावा᳚पृथि॒वी श॑ प्र॒जाभ्य॒ शं न॑ एधिं द्वि॒पदे॒ शं चतु॑ष्पदे ||६|| |
[16] [ऋग्वेद मंडल ७, ५५ सूक्तस्यानन्तरम्][ऋग्वेद अष्टक ५, अध्याय ४, २२ वर्गानन्तरम्] |
स्वप्नस्वप्नाधिकरणे सर्वं निष्वापयाजनम् | आसूर्यमन्यान् त्स्वापयद् व्यूह्लं जाग्रियादहम् ||1|| |
अजगरो नाम सर्पः सर्पिरविषो महान् | तस्मिन्हि सर्पः सुधितस्तेन त्वास्वाषयामसि ||2|| |
सर्पः सर्पोऽजगरः सर्पिरविषो महान् | तस्य सर्पात् सिंधवस्तस्य गाधमशीमहि ||3|| |
काळिको नाम सर्पो नवनागसहस्रबळः | यमुनह्रदेहसो जातो यो नारायणवाहनः ||4|| |
यदि काळिकदूतस्य यदिकाः काळिकाद्भयात् | जन्मभूमिमतिक्रान्तो निर्विषो याति काळिकः ||5|| |
आयाहीन्द्रपथिभिरीळितेभिर्यज्ञमिमं नो भागधेयं जुषस्व | तृप्तां जहुर्मातुळस्येव योषाभागस्ते पैतृष्वसेयीवपामिव ||6|| |
यशस्करं बलवन्तं प्रभुत्वं तमेव राजाधिपतिर्बभूव | सं कीर्णनागाश्वपतिर्नराणां सुमं गल्यं सततं दीर्घमायुः ||7|| |
कर्कोटको नाम सर्पो यो दृष्टीविष उच्यते | तस्य सर्पस्य सर्पत्वं तस्मै सर्प नमोऽस्तुते ||8|| |
[17] [ऋग्वेद मंडल ७, १०३ सूक्तस्यानन्तरम्][ऋग्वेद अष्टक ७, अध्याय ७, ४ वर्गानन्तरम्]पावमानीः |
उप॒प्लव॑त मण्डूकि व॒र्ष मा व॑द तादुरि | मध्ये᳚ ह्र॒दस्य॑ प्ल॒वस्व॑ नि॒गृह्य॑ च॒तुरः॑ प॒दः || |
[18] [ऋग्वेद मंडल ९, ६७ सूक्तस्यानन्तरम्][ऋग्वेद अष्टक ७, अध्याय २, १८ वर्गानन्तरम्]पावमानीः |
पा॒व॒मा॒नीः स्व॒स्त्यय॑नीः सु॒दुघा॒ हि घृ॑त॒श्चुतः॑ | ऋषि॑भिः॒ संभृ॑तो॒ रसो᳚ ब्राह्म॒णेष्व॒मृतं᳚ हि॒तम् ||1|| |
पा॒व॒मा॒नीर्दि॑शन्तु न इ॒मं लोकमथो᳚, अ॒मुम् | कामा॒न्त्सम॑र्धयन्तु नो दे॒वीर्दे॒वैः स॒माहि॑ताः ||2|| |
येन॑ दे॒वाः प॒वित्रे᳚णा॒ ऽऽत्मानं᳚ पु॒नते॒ सदा᳚ | तेन॑ स॒हस्र॑धारेण पावमा॒न्यः पु॑नन्तु माम् ||3|| |
प्रा॒जा॒प॒त्यं प॒वित्रं᳚ श॒तोद्या᳚मं हिर॒ण्मय᳚म् | तेन॑ ब्रह्म॒विदो᳚ व॒यं पू॒तं ब्रह्म॑ पुनीमहे ||4|| |
इन्द्रः॑ पुनी॒ती स॒ह मा᳚ पुनातु॒ सोमः॑ स्व॒स्त्या वरु॑णः स॒मीच्या᳚ | य॒मो राजा᳚ प्रमृ॒णाभिः॑ पुनातु मा जा॒तवे᳚दा मू॒र्जयं᳚त्या पुनातु ||5|| |
ऋ॒ष॒य॒स्तु त॑पस्ते॒पुः स॒र्वे स्व॑र्गजि॒गीष॑वः | त॒प॒स॒स्त॒प॒सो॒ग्र्यं᳚तु पा॒वमा᳚नीरृ॒चोब्र॑वीत् ||6||[व:१] |
यन्मे॒ गर्भे॒ वस॑तः पा॒पमु॒ग्रं यज्जा᳚यमा॒नस्य॑ च॒ किंचि॑दन्यत् | जा॒तस्य॑ च॒ यच्चा᳚पि च॒ वर्ध॑तो मे॒ तत् पा᳚वमा॒नीभि॑र॒हं पु॒नामि ||7|| |
मा॒तापि॒त्रोर्य॒न्न कृ॑तं॒ वचो᳚ मे॒ यत् स्था᳚व॒रं जं॒गम॑माब॒भूव॑ | विश्व॑स्य॒ तत् प्र॑हृषि॒तं वचो᳚ मे॒ तत् पा᳚वमा॒नीभि॑र॒हं पु॑नामि ||8|| |
गोघ्ना॒त्तस्क॑रत्वा॒त् स्त्रीव॑धा॒द् यच्च॒ किल्बि॑षम् | पा॒प॒कं च॒ चर॑णेभ्य॒स् तत् पा᳚वमा॒नीभि॑र॒हं पु॑नामि ||9|| |
ब्रह्म॑वधा॒त् सुरा᳚पाना॒त् स्व᳚र्णस्तेयाद् वृष॑लिगमनमैथुनसंग॒मात् | गु॒रो॒र्दा॒राधि॒गम॑नाच्च॒ तत् पा᳚वमा॒नीभि॑र॒हं पु॑नामि ||10|| |
बाल॑घ्ना॒न् मातृ॑पितृवधा॒द् भूमि॑तस्करा॒त् सर्व॑वर्णगमनमैथुनसंग॒मात् | पा॒पेभ्य॑श्च प्र॒तिग्र॑हा॒त् सद्यः॑ प्रहरति॒ सर्व॑दुष्कृतं॒ तत् पा᳚वमा॒नीभि॑र॒हं पु॑नामि ||11|| |
क्रय॑विक्रया॒द् योनि॑दोषा॒द् भक्षा॒द् भोज्या᳚त् प्र॒तिग्र॑हात् | अ॒सम्भोज॒नाच्चा᳚पि नृ॒शंसं॒ तत् पा᳚वमा॒नीभि॑र॒हं पु॑नामि ||12||[व:२] |
दुर्य॑ष्टं॒ दुर॑धीतं पापं॒ यच्चा᳚ज्ञान॒तो कृतम् | अ॒या॒जि॒ता श्चा॒संया᳚ज्या॒स् तत् पा᳚वमा॒नीभि॑र॒हं पु॑नामि ||13|| |
अ॒म॒न्त्र॒मन्नं᳚ यत् किं॒चिद्धू॒यते᳚ च हु॒ताश॑ने | संव॑त्स॒रकृ॑तं पा॒पं तत् पा᳚वमा॒नीभि॑र॒हं पु॑नामि ||14|| |
ऋ॒तस्य॒ योन॑योऽमृ॒तस्य॒ धाम॒ विश्वा᳚ दे॒वेभ्यः॒ पुण्य॑गन्धाः | ता॒ न॒ आ॒पः॒ प्र॒ वह᳚न्तु पा॒पं शु॒द्धा॒ ग॒च्छा॒मि॒ सु॒कृता᳚मुलो॒कं तत् पा᳚वमा॒नीभि॑र॒हं पु॑नामि ||15|| |
पा॒व॒मा॒नीः स्व॒स्त्यय॑नी॒र्याभि॑र्गच्छति नान्द॒नम् | पुण्यां᳚श्च भ॒क्ष्यान् भ॑क्षयत्यमृत॒त्वं च॑ गच्छति ||16|| |
पा॒व॒मा॒नीः पि॒तॄन् देवान् ध्या॒येद् य॑श्च स॒रस्व॑तीम् | पितॄं᳚स्त॒स्योप॑ वर्ते॒त क्षी॒रं स॒र्पिर्मधू᳚द॒कम् ||17|| |
पा॒व॒मा॒नं प॑रं ब्र॒ह्म शु॒क्रं ज्यो᳚तिः स॒नात॑नम् | ऋषीं᳚स्त॒स्योप॑ तिष्ठे॒त क्षी॒रं स॒र्पिर्मधू᳚द॒कम् ||18|| |
पा॒व॒मा॒नं प॑रं ब्र॒ह्म ये॒ पठ᳚न्ति म॒नीषि॑णः | सप्त॑ ज॒न्म भ॑वेद् वि॒प्रो ध॒नाढ्यो᳚ वेद॒पार॑गः ||19|| |
दशो᳚त्त॒राण्यृ॑चांश्चै॒व पा॒वमा᳚नीः श॒तानि॑ षट् | ए॒त॒ज्जु॒ह्व॒न् ज॒पे॒न्मन्त्रं᳚ घो॒रमृ॑त्युभ॒यं ह॑रेत् ||20|| |
एतत् पु॒ण्यं पा᳚पह॒रं रो॒गमृ॑त्युभ॒याप॑हं | पठ॑तां शृण्व॑तां चै॒व द॒दाति॑ पर॒मां ग॑तिम् ||21||[व:३] |
[19] [ऋग्वेद मंडल ९, ११४ सूक्तस्यानन्तरम्][ऋग्वेद अष्टक ७, अध्याय ५, २८ वर्गानन्तरम्] |
यत्र तत् परमं पदं विष्णोर्लोके महीयते | देवैः सुकृतकर्मभिस्तत्र माममृतं कृधींद्रायेन्दोपरिस्रव ||1|| |
यत्र तत् परमाय्यं भूतानामधिपतिम् | भावभावी च योगीश्च तत्र माममृतं कृधींद्रायेन्दोपरिस्रव ||2|| |
यत्र लोकास्तनूत्यजः श्रद्ध्या तपसाजिताः | तेजश्च यत्र ब्रह्म च तत्र माममृतं कृधींद्रायेन्दोपरिस्रव ||3|| |
यत्र देवा महात्मानः सेन्द्राश्च मरुद्गणाः | ब्रह्मा च यत्र विष्णुश्च तत्र माममृतं कृधींद्रायेन्दोपरिस्रव ||4|| |
यत्र गङ्गा च यमुना यत्र प्राची सरस्वती | यत्र सोमेश्वरो देवस्तत्र माममृतं कृधींद्रायेन्दोपरिस्रव ||5|| |
[20] [ऋग्वेद मंडल १०, १२७ सूक्तस्यानन्तरम्][ऋग्वेद अष्टक ८, अध्याय ७, १४ वर्गानन्तरम्] |
आ रा᳚त्रि॒ पार्थि॑वं॒ रजः॑ पि॒तरः॑ प्रायु॒ धाम॑भिः | दि॒वः सताम्᳚सि बृह॒ती वि ति॑ष्ठ स॒ आ त्वे॒षं व॑र्तते तमः॑ ||1|| |
ये ते᳚ रात्रि नृ॒चक्ष॑सो यु॒क्तासो᳚ न॒वतिर्नव॑ | अशीतिः॑ संत्व॒ष्टा॒, उ॒तो ते᳚ सप्त॒ सप्त॑तीः ||2|| |
रात्रीं॒ प्रप॑त्ये ज॒ननीं᳚ स॒र्वभू᳚तनिवेश॑नीम् | भ॒द्रां भ॒गव॑तीं कृ॒ष्णां॒ वि॒श्वस्य॑ जग॒तो नि॑शाम् ||3|| |
स॒म्वे॒शि॒नीं᳚ सं॒य॒मि॒नीं॒ ग्र॒हन॑क्षत्र॒मालि॑नीम् | प्रप᳚न्नो॒ऽहं शि॑वां रा॒त्रीं॒ भ॒द्रे पा᳚रम॒शीम॑हि (भ॒द्रे पारम॒शीम॒ह्यों नमः॑) ||4|| |
स्तो॒ष्या॒मि॒ प्रयतो॒ देवीं᳚ श॒रण्यां᳚ बह्वृ॒चप्रि॑याम् | स॒ह॒स्र॒संहि॑तां दु॒र्गां जा॒तवे᳚दसे सुनवाम॒ सोमम्᳚ ||5|| |
शा॒न्त्य॒र्थं॒ तद्द्वि॒जा॒तीना᳚ऋ॒षिभिः॑ सोम॒पाश्रि॑ताः | ऋक्वे᳚दे॒ त्वं संमूत्प॒नाऽरा᳚त्रीय॒तो नि द॑हाति॒ वेदः॑ ||6|| |
ये त्वां᳚ दे॒वि प्र॒ पत्य᳚न्ति ब्रा॒ह्मणा᳚ हव्य॒वाह॑नीम् | अ॒वि॒त्या॒ बहु॑वित्या॒ वा॒ सनः॑ पर्ष॒दति॑ दुर्गाणि॒ विश्वा᳚ ||7|| |
ये, अ॒क्निवर्᳚णां शु॑भां सौ॒म्यां की॒र्तयि॑ष्यन्ति॒ ये द्वि॑जाः | ता॒म्स्ता॒र॒य॒ति॒ दुर्गा᳚णि ना॒वेव सिन्धुं᳚ दुरि॒तात्य॒ग्निः ||8|| |
दुर्गे᳚षु विषमे घोरे᳚ सङ्ग्रामे᳚ रिपुसङ्क॑टे | अग्निचोरनि॑पातेषु दुष्ठग्र॑हनिवारिणि दुष्ठग्र॑हनिवारिण्योन्नमः॑ ||9|| |
दुर्गेषु॒ विष्॑मेषु॒ त्वं᳚ स॒ङ्ग्रामे᳚षु व॒नेषु॑ च | मो॒ह॒यि॒त्वा 'प्र॑पत्य॒म्न्ते ते॒षां मे᳚ अभ॒यं कु॑रु ||10|| |
ते॒षां मे, अभ॒यं कु॑रुवोन्नमः॑ | के॒शि॒नीं᳚ सर्व॑भूता॒नां॒ प॒ञ्चमी᳚ति च॒ नाम॑ च ||11|| |
सा॒ मां॒ स॒मा॒ नि॒शा॒ देवी᳚ स॒र्वतः॑ परि॒ रक्ष॑तु | स॒र्वतः॑ परि॒ रक्ष॒त्वोन्नमः॑ ||12|| |
ताम॒ग्निव᳚र्णां॒ तपसा ज्वल॒म्तीं वै᳚रोच॒नीं कर्᳚मफ॒लेषु जुष्टां᳚ | दु॒र्गां॒ दे॒वीं शर॑णम॒हं प्रप॑द्ये सु॒तर॑सि तरसे॒ नमः॑ ||13|| |
दुर्गा᳚ दुर्॒गेषु॑ स्थाने॒षु शं॒ नो दे᳚वीर॒भि॑ष्टये | य इ॒मं दु॒र्गास्त॑वं पु॒ण्यं रा॒त्रौरा᳚त्रौ स॒दा प॑ठेत् ||14|| |
रात्रिः कुशि॑कसो॒भ॒रो॒ रात्रि॒र्वा भा᳚रद्वा॒जी रात्रि॒स्तवो᳚ गाय॒त्री | रातरी᳚सू॒क्तं जपे᳚न्नि॒त्यं॒ त॒त्काल॑मुपप॒द्य॑ते ||15|| |
उलू᳚कयातुं शीशी॒लूक॑यातुं ज॒हि श्वया᳚तुमु॒त कोक॑यातुम् | सु॒प॒र्णया᳚तुमुत गृ॑ध्रयातुं दृ॒षदे᳚व प्रमृ॑ण॒ रक्ष॑ इन्द्र ||16|| |
पि॒शङ्ग॑भृषटि॒मम्भृ॒णं पि॒शाचि॑मिन्द्र॒ सं मृ॑ण | सर्वं॒ रक्षो॒ निबर्᳚हय ||17|| |
हि॒मस्य॑ त्वा ज॒रायु॑णा शाले॒ परि᳚ व्ययामसि |(उत॒ ह्र॒दो हि॑ नो धियो॒ग्निर्द॑दातु भेष॒जम्) ||18|| |
शीशी᳚तह्र॒दो हि॑ नो धियो॒ग्निर्द॑दातु भेष॒जम् | अन्ति॒काम॒ग्निम॑जनय॑ दूर्वा᳚दः॑ शी॒शीलाग॑मत् ||19|| |
अ॒जातपुत्रप॒क्षाया᳚ हृ॒दयं॒ मम॑ दूयते | विपु॑लं॒ वनं᳚ ब॒ह्वाका᳚शं चर॑ जातवेदः॒ कामा᳚य ||20|| |
मां॒ च॒ रक्ष॒ पुत्रां᳚श्च शर॑णमभू॒त्तव॑ | पि॒\ङ्गाक्ष॒ लोहि॒तग्री᳚व कृ॒ष्णव᳚र्ण न॒मोस्तु॑ ते ||21|| |
अ॒स्मान्नि॒बर्ह॑रस्येनां॒ सा॒गर॑स्योर्म॒यो य॑था | इन्द्रः॑ क्ष॒त्रं द॑दातु॒ वरू᳚णम॒भि षिम्᳚चतु ||22|| |
श॒त्र॒वो॒ निध॑नं या॒न्तु॒ ज॒य त्वं᳚ ब्रह्म॒तेज॑सा | क॒पि॒ल॒ज॒टीं᳚ सर्व॑भक्षं॒ चा॒ग्निं प्र॑त्यक्ष॒ दैव॑तम् ||23|| |
व॒रु॒णं॒ च॒ व॒शा॒म्यग्रे᳚ म॒म पु॑त्रांश्च॒ रक्ष॑तु (म॒म पु॑त्रांश्च॒ रक्ष॒त्वोन्नमः॑) | साग्रं᳚ व॒र्षश॒तं जी᳚व पि॒ब खा᳚द च॒ मोद॑ च ||24|| |
दु॒:खि॒तां॒श्च द्वि॑जांश्चै॒व प्र॒जां च॑ पशु॒ पाल॑य | याव॑दा॒दित्यस्त॑पति॒ याव॑द्भ्राजति॒ चन्द्र॑माः ||25|| |
या॒व॒द्वा॒युः प्लवा᳚यति॒ ताव॑ज्जीव॒ जया᳚ जय | येन॑ के॒न प्र॑कारे॒ण को॒ हि ना᳚म नु॒ जीव॑ति ||26|| |
परे᳚षा॒मुप॑कारार्थं य॒ज्जीव॑ति स॒ जीव॑ति | ए॒तां॒ वै॒श्वानरीं᳚ स॒र्वदे᳚वान्न॒मोस्तु॑ ते ||27|| |
न चो᳚र॒भयं॒ न च॑ सर्प॒भयं॒ न च᳚ व्याघ्र॒भयं॒ न च॑ मृत्यु॒भयम्᳚ | य॒स्या॒प॒मृ॒त्युर्न च मृ॒त्युः सर्वम्᳚ लभते॒ सर्वं᳚ जयते ||28|| |
[21] [ऋग्वेद मंडल १०, १२८ सूक्तस्यानन्तरम्][ऋग्वेद अष्टक ८, अध्याय ७, १६ वर्गानन्तरम्] |
आ॒युष्यं᳚ व॒र्चस्यं᳚ रा॒यस्पो᳚ष॒मौद्भि॑द्यम् | इ॒दं हिर᳚ण्यं॒ वर्च॑स्व॒ज्जैत्रा॒या वि॑शतादि॒माम् ||1|| |
उ॒च्चै॒र्वा॒जि पृ॑तना॒षाट् स॑भासा॒हं ध॑नंज॒यम् | सर्वाः॒ सम॑ग्रा॒ ऋद्ध॑यो॒ हिर᳚ण्ये॒ऽस्मिन् स॒माहि॑ताः ||2|| |
शु॒नम॒हं हिर᳚ण्यस्य पि॒तुर्माने᳚व ज॒ग्रभ॑ | तेन॒ मां सूर्यत्वच॒मक॑रं पू॒रुषु॑ प्रि॒यम् ||3|| |
स॒म्राजं᳚ च वि॒राजं᳚ चाऽभिष्टि॒र्या च॑ मे ध्रु॒वा | ल॒क्ष्मी रा॒ष्ट्रस्य॒ या मु॑खे॒ तया॒ मामि᳚न्द्र॒ सं सृ॑ज ||4|| |
अ॒ग्नेः प्रजा᳚तम्॒ परि॒ यद्धिर᳚ण्यम॒मृतं᳚ य॒ज्ञे, अधि॒ मर्त्ये᳚षु | य ए᳚न॒द् वेद॒ स इदे᳚नमर्हति ज॒रामृ॒त्युर्भ॑वति॒ यो बि॒भर्ति॑ ||5||[व:१] |
यद् वेद॒ राजा॒ वरु॑णो॒ यदु॑ दे॒वी सर॑स्वती | इन्द्रो॒ यद् वृ॑त्र॒हा वे᳚द॒ तन्मे॒ वर्च॑स॒ आयु॑षे ||6|| |
न तद् रक्षां॑सि॒ न पि॑शा॒चाश्च॑रन्ति दे॒वाना॒मोजः॑ प्रथम॒जं ह्ये॒ (ए॒) १॒॑ तत् | यो बि॒भर्ति॑ दाक्षाय॒णा हिर᳚ण्यं॒ स दे॒वेषु॑ कृणुते दी॒र्घमा᳚युः॒ स म॑नु॒ष्ये᳚षु कृणुते दी॒र्घमायुः॑ ||7|| |
य॒दा ब॑ध्नन् दाक्षाय॒णा हिर᳚ण्यं श॒तानी᳚काय सुमन॒स्यमा᳚ना | तन्न॒ आ ब॑ध्नामि श॒त शा᳚रदा॒याऽयु॑ष्मान् ज॒रद॑ष्टि॒र्यथास॑त् ||8|| |
घृ॒तादुर्लु॑प्तं॒ मधु॑मत् सु॒वर्णं᳚ धनंज॒यं ध॒रुणं धारयि॒ष्णु ||9|| |
ऋ॒णक् स॒पत्ना॒ दध॑राँश्च कृ॒ण्वदारो᳚ह मां मह॒ते सौभ॑गाय ||10|| |
प्रि॒यं मा᳚ कुरु दे॒वेषु॑ प्रि॒यं राज॑सु मा कुरु | प्रि॒यं विश्वे᳚षु गो॒प्त्रेषु॒ मयि॑ धेहि रु॒चा रुचं᳚ ||11|| |
अ॒ग्निर्येन॑ वि॒राज॑ति॒ सूर्यो॒ येन॑ वि॒राज॑ति ||12|| |
वि॒राज्येन॒ विरा᳚जति॒ तेना॒स्मान् ब्र᳚ह्मणस्पते॒ विरा᳚ज स॒मिधं᳚ कुरु ||13||[व:२] |
[22] [ऋग्वेद मंडल १०, १५१ सूक्तस्यानन्तरम्][ऋग्वेद अष्टक ८, अध्याय ८, ९ वर्गानन्तरम्] |
मे॒धां मह्य॒मंगि॑रसो मे॒धां स॒प्त ऋष॑यो ददुः | मे॒धामिन्द्र॑श्चा॒ग्निश्च॑ मे॒धाम् धा॒ता द॑दातु ते ||1|| |
मे॒धां ते॒ वरु॑णो रा॒जा मे॒धां दे॒वी सर॑स्वती | मे॒धां ते᳚, अ॒श्विनौ᳚ दे॒वावा ध॑त्तां॒ पुष्क॑रस्रजा ||2|| |
या मे॒धा, अ॑प्स॒रस्सु॑ गंध॒र्वेषु॑ च॒ यन्मनः॑ | दैवी॒ या मानु॑षी मे॒धा सा मा॒मा वि॑शतादि॒माम् ||3|| |
यन्मे॒ नोक्तं॒ तद्र॑मताम्॒ शके᳚यं॒ यद॑नु॒ब्रुवे᳚ | निशा᳚मतं॒ नि शा᳚महै॒ मयि᳚ व्र॒तं स॒ह व्र॒तेषु भूयासं॒ ब्रह्म॑णा॒ सं ग॑मेमहि ||4|| |
शरी᳚रं मे॒ विच॑क्षणं॒ वाङ् मे॒ मधु॑म॒द् दुहा᳚म् | आवृ॑द्धम॒हम॒सौ सूर्यो॒ ब्रह्म॑णा॒नि स्थः॑ श्रु॒तं मे॒ मा प्र हा᳚सीः ||5||[व:१] |
मे॒धां दे॒वीं मन॑सा॒ रेज॑मानां गंध॒र्वजु॑ष्टां॒ प्रति॑ नो जुषस्व | मह्यं॒ मेधां᳚ वद॒ मह्यं॒ श्रियं᳚ वद मेधा॒वी भू᳚यासम॒जरा᳚जरि॒ष्णु ||6|| |
सद॑स॒स्पति॒मद्भु॑तं प्रि॒यमिन्द्र॑स्य॒ काम्य᳚म् | स॒निं मे॒धाम॑यासिषम् ||7|| |
यां मे॒धां दे॒वग॑णाः पि॒तर॑श्चो॒पास॑ते | तया॒ मामद्यमे॒धया᳚ऽग्ने मेधा॒विनं᳚ कुरु ||8|| |
मेधा॒व्य१॑(अ॒)हं सु॒मनाः᳚ सु॒प्रती᳚कः श्र॒द्धाम॑नाः स॒त्यम॑तिः सु॒शेवः॑ | म॒हा॒य॒शा धा॒रयिष्णुः॑ प्रव॒क्ता भू॒यास॑मस्मै श॒रया᳚ प्रयो॒गे ||9|| |
ना॒शा॒यि॒त्री प॑लाश॒स्यारुष॑सौ पथि॒काम॑सु | अथो᳚ त॒तस्य॒ यक्ष्मा᳚ण॒मपापा᳚ रोग॒नाशि॑नी ||10|| |
ब्र॒ह्म॒वृ॒क्ष प॑लाश॒ त्वम् श्र॒द्धां मे᳚धां च॒ देहि॑ मे | वृ॒क्षा॒धि॒प न॑मस्ते॒ऽस्तु अ॒त्र त्वं᳚ सन्नि॒धौ भ॒व ||11||[व:२] |
[23] [ऋग्वेद मंडल १०, १६१ सूक्तस्यानन्तरम्][ऋग्वेद अष्टक ८, अध्याय ८, १२ वर्गानन्तरम्] |
ऊर्ध्वरेखा प्र दहन्ते विष्णुरिममिन्द्राग्नी, अमृतं जुषेताम् | मह्यं दधाना, उप दीर्घमायुरस्मे धत्तं पुरुभुजा पुरन्धिः ||1|| |
[24] [ऋग्वेद मंडल १०, १६६ सूक्तस्यानन्तरम्][ऋग्वेद अष्टक ८, अध्याय ८, २४ वर्गानन्तरम्] |
येने॒दं भू॒तं भुव॑नं भवि॒ष्यत् परि॑ गृहीतम॒मृते᳚न॒ सर्व᳚म् | येन॑ य॒ज्ञस्ता॒यते स॒प्तहो᳚ता॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||1|| |
येन॒ कर्मा᳚ण्य॒पसो᳚ मनी॒षिणो᳚ य॒ज्ञे कृ॒ण्वन्ति॑ वि॒दथे᳚षु॒ धीराः᳚ | यद॑पू॒र्वं य॒क्षम॒न्तः प्र॒जानां॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||2|| |
यज्जाग्र॑तो दू॒रमु॒दैति॒ दैवं॒ तदु॑ सु॒प्तस्य॒ तथै॒वेति॑ | दू॒र॒ङ्ग॒मं ज्योति॑षां॒ ज्योति॒रेकं॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||3|| |
यत् प्र॒ज्ञान॑मु॒त चेतो॒ धृति॑श्च॒ यज्ज्योति॑र॒न्तर॒मृतं᳚ प्र॒जासु॑ | यस्मा॒न्न ऋ॒ते किञ्च॒न कर्म॑ क्रि॒यते॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||4|| |
यस्मि॒न्नृचः॒ साम॒ यजूं᳚षि॒ यस्मि॒न् प्रति॑ष्ठिता रथ॒नाभावि॑वा॒राः | यस्मिं᳚श्चि॒त्तं सर्व॒मोतं᳚ प्र॒जानां॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||5|| |
सु॒षा॒र॒थिरश्वा᳚निव॒ यन्म॑नु॒ष्या᳚न् नेनी॒यते॒ऽभिशु॑भिर्वा॒जिन॑ इव | हृत्प्रति॑ष्ठं॒ यद॑जि॒रं यवि॑ष्ठ॒म् तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||6||[व:१] |
ये पञ्च॑ पञ्चा॒शतः॑ श॒तं च॑ स॒हस्रं᳚ च नि॒युतं᳚ चार्बु॒दं च॑ | ते य॑ज्ञचि॒त्तेष्ट॒काटं॒ शरी᳚रं॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||7|| |
वेदा॒हमे॒तं पुरु॑षं म॒हान्त॑ मादि॒त्यव᳚र्णं॒ तम॑सः॒ पर॑स्तात् | तस्य॒ योनिं॒ परि॑पश्यन्ति॒ धीरा॒स्तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||8|| |
येन॒ कर्मा᳚णि॒ प्रच॑रन्ति॒ धीरा॒ विप्रा᳚ वा॒चा मन॑सा॒ कर्म॑णा वा | यत् स्वां॒ दिश॑मनु॒ संय᳚न्ति प्रा॒णिन॒स्तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||9|| |
ये मे॒ मनो॒ हृद॑यं॒ ये च॑ दे॒वा ये, अ॒न्तरि॑क्षं बहु॒धा क॒ल्पय᳚न्ति | ये श्रोत्रं᳚ च च॒क्षुषी॒ सञ्च॑रन्ति॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||10|| |
यस्ये॒दं धीराः᳚ पु॒नन्ति॑ क॒वयो᳚ ब्र॒ह्माण॑मे॒तं व्यावृ॑णुत॒ इन्दु᳚म् | स्थाव॒रं जङ्ग॑मं च॒ द्यौरा᳚का॒शं तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||11||[व:२] |
येन॒ द्यौरु॒ग्रा पृ॑थि॒वी चा॒न्तरि॑क्ष॒म् येन॒ पर्व॑ताः प्र॒दिशो॒ दिश॑श्च | येने॒दं सर्वं᳚ जग॒द्व्याप्तं᳚ प्र॒जान॒त् तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||12|| |
अव्य॑क्तं॒ चाप्र॑मेयं॒ च व्य॒क्ताव्य॑क्तप॒रं शि॑वम् | सूक्ष्मा᳚त् सू॒क्ष्मत॑रं ज्ञे॒यं तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||13|| |
कै॒लास॒शिख॑रे र॒म्ये श॒ङ्कर॑स्य गृ॒हाल॑यम् | दे॒वता॒स्तत् प्र॑मोद॒न्ते तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||14|| |
आ॒दि॒त्यव᳚र्णं॒ तप॑सा ज्वल॒न्तम् यत् पश्य॑सि॒ गुहा᳚सु॒ जाय॑मानः | शि॒वरू॒पं शि॒वमु॒दितं शि॒वाल॑य॒म् तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||15|| |
येने॒दं सर्वं॒ जग॑तो ब॒भूव॒ यद्दे॒वा, अपि॑ मह॒तो जा॒तवे᳚दाः | यदे॒वाग्र्यं॒ तप॑सो॒ ज्योति॒रेकं॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||16||[व:३] |
गोभि॑र्जु॒ष्टो ध॑नेन ह्या॒युषा᳚ च ब॒लेन॑ च | प्र॒जया᳚ प॒शुभिः॑ पुष्करा॒र्धं तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||17|| |
योऽसौ᳚ स॒र्वेषु॑ वेदे॒षु प॒ठ्यते᳚ऽनद॒ ईश्व॑रः | अका᳚र्यो॒ निर्व्र॑णो ह्या॒त्मा तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||18|| |
यो वेदा᳚दिषु॒ गाय॒त्री स॒र्वव्या᳚पी म॒हेश्व॑रः | तदु॑क्तं॒ च य॑दा ज्ञे॒यं तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||19|| |
प्रयत॒प्राण॑ ओङ्का॒रं प्र॒णवं᳚ च म॒हेश्व॑रम् | यः सर्वं॒ यस्य॑ चित् स॒र्वम् तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||20|| |
यो वै᳚ वे॒द म॑हादे॒वं प्र॒णवं᳚ पुरु॒षोत्त॑मम् | ओ॒ङ्कारं॒ पर॑मात्मा॒नम् तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||21||[व:४] |
ओ॒ङ्कारं॒ च॑तुर्भु॒जम् लो॒कना᳚थं नारायणम् | सर्व॑स्थि॒तं स᳚र्वग॒तं सर्व᳚व्या॒प्तम् तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||22|| |
त॒त् परा᳚त् पर॒तो ब्र॒ह्मा त॒त् परा᳚त् पर॒तो हरिः॑ | परा᳚त् प॒रत॑रं ज्ञा॒नम् तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||23|| |
य इ॒दं शिव॑सङ्क॒ल्पम् स॒दाधी᳚यन्ति॒ ब्राह्म॑णाः | ते परं॒ मोक्ष॑माप्स्य॒न्ति तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||24|| |
अस्ति॒ नास्ति॑ शयि॒त्वा सर्व॑मि॒दम् नास्ति॒ पुन॒स्तथै᳚व दृ॒ष्टं ध्रु॒वं | अस्ति॒ नास्ति॑ हि॒तं म॑ध्य॒मं प॒दम् तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||25|| |
अस्ति॒ नास्ति॑ विप॒रीतो᳚ प्र॒वादो᳚ ऽस्ति॒ नास्ति॒ गुह्यं॒ व इ॒दं सर्व᳚म् | अस्ति॒ नास्ति॑ परा॒त् परो᳚ यत् पर॒म् तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस᳚ङ्क॒ल्पम॑स्तु ||26||[व:५] |
[25] [ऋग्वेद मंडल १०, १८४ सूक्तस्यानन्तरम्][ऋग्वेद अष्टक ८, अध्याय ८, ४२ वर्गानन्तरम्] |
नेज॑मेष॒ परा᳚ पत॒ सुपु॑त्रः॒ पुन॒रा प॑त | अ॒स्यै मे᳚ पु॒त्रका᳚मायै॒ गर्भ॒मा धे᳚हि॒ यः पुमा॑न् ||1|| |
यथे॒यं पृ॑थि॒वी म॒ह्य्युत्ता॒ना गर्भ॑माद॒धे | ए॒वं तं गर्भ॒मा धे᳚हि दश॒मे मा॒सि सूत॑वे ||2|| |
विष्णोः॒ श्रेष्ठे᳚न रू॒पेणा॒ऽस्यां नार्यां᳚ गवी॒न्याम् | पुमां᳚सं पु॒त्राना धे᳚हि दश॒मे मा॒सि सूत॑वे ||3|| |
[26] [ऋग्वेद मंडल १०, १८७ सूक्तस्यानन्तरम्][ऋग्वेद अष्टक ८, अध्याय ८, ४५ वर्गानन्तरम्] |
अनी᳚कवंतमूतये॒ऽग्निं गी॒र्भिर्ह॑वामहे | स नः॑ पर्ष॒दति॒ द्विषः॑ ||1|| |
[27] [ऋग्वेद मंडल १०, १९१ सूक्तस्यानन्तरम्][ऋग्वेद अष्टक ८, अध्याय ८, ४९ वर्गानन्तरम्] |
सं॒ज्ञान॑मुशना᳚वदत् सं॒ज्ञानं॒ वरु॑णोऽवदत् | सं॒ज्ञान॒मिन्द्र॑श्चा॒ग्निश्च॑ सं॒ज्ञानं᳚ सवि॒ताव॑दत् ||1|| |
सं॒ज्ञानं᳚ वः स्वेभ्यः॑ सं॒ज्ञान॒मर॑णेभ्यः | सं॒ज्ञान॑म॒श्विना᳚ यु॒व मि॒हास्मा᳚सु॒ नि य॑च्छताम् ||2|| |
यत् क॒क्षीवां᳚ सं॒वन॑नं पु॒त्रो, अङ्गि॑रसां॒ भवे᳚त् | तेन॑ नोऽद्य॒ विश्वे᳚ दे॒वाः सं प्रि॒यां सम॑जीजनन् ||3|| |
सं वो॒ मनां᳚सि जानतां स॒माकू᳚ति॒र्मना᳚मसि | अ॒सौ यो विम॑ना म॒नः सं स॒माव॑र्तयामसि ||4|| |
नै॒र्ह॒स्त्यं से᳚ना॒दर॑णं॒ परि॑ वर्त्मे᳚तु॒ यद्ध॒विः | तेना᳚मित्रा॒णां बा॒हून् ह॒विषा᳚ शोषयामसि ||5|| |
परि॒वर्त्मा᳚न्येषा॒मिन्द्रः॑ पू॒षा च॒ सस्र॑तुः | तेषां᳚ वो, अ॒ग्निद॑ग्धानाम॒ग्निमू᳚ळ्हाना॒ मिन्द्रो᳚ हन्तु वरं᳚वरम् ||6|| |
ऐषु॑ नह्यवृषाजि॒नं ह॑रि॒णस्य॒ धियं᳚ यथा | पराँ᳚, अ॒मित्राँ᳚, ऐष त्व॒र्वाची᳚ गौरु॒पाज॑तु ||7|| |
प्राध्व॒राणां᳚ पते वसो॒ होत॒र्वरे᳚ण्यक्रतो | तुभ्यं᳚ गाय॒त्रमृ॑च्यते ||8|| |
गोका᳚मो॒, अन्न॑कामः प्र॒जाका᳚म उ॒त क॑श्यपः | भू॒तं भ॒विष्य॒त् प्रस्तौ᳚ति स॒ह ब्र᳚ह्मैक॒मक्ष॑रं ब॒हुब्र᳚ह्मैक॒मक्ष॑रम् ||9|| |
यद॒क्षरं᳚ भूत॒कृतं॒ विश्वे᳚देवा, उ॒पास॑ते | मह॑ ऋषि॒मस्य॑ गोप्ता॒रं ज॒मद॑ग्नि॒रकु᳚र्वतम् ||10|| |
ज॒मद॑ग्निराप्यायते॒ छन्दो᳚भिश्चतु॒रुत्त॑रैः | राजा॒ सोम॑स्य भ॒क्षेण॒ ब्रह्म॑णा वी॒र्या᳚वता ||11|| |
शि॒वा नः॑ प्रदिशो॒ दिशः॑ स॒त्या नः॑ प्रदिशो॒ दिशः॑ | अ॒जो यत् तेजो॒ ददृ॑श्रे शु॒क्रं ज्योतिः॒ परो॒ गुहा᳚ ||12|| |
यदृषिः॒ कश्य॑पः स्तौ॒ति स॒त्यं ब्र᳚ह्म चराच॒रं ध्रु॒वं ब्र᳚ह्म चराच॒रम् | त्र्या॒यु॒षं ज॒मद॑ग्नेः॒ कश्य॑पस्य त्र्यायु॒षम॒ऽगस्त्य॑स्य त्र्यायु॒षम् ||13|| |
यद्दे॒वानां᳚ त्र्यायु॒षं तन्मे॒, अस्तु॑ त्र्यायु॒षं सर्व॑मस्तु शतायु॒षं ब॒लायु॑षम् ||14|| |
तच्छं॒योरा वृ॑णीमहे गा॒तुं य॒ज्ञाय॑ गा॒तुं य॒ज्ञप॑तये | दैवी᳚ स्व॒स्तिर॑स्तु नः स्व॒स्तिर्मानु॑षेभ्यः | ऊ॒र्ध्वं जि॑गातु भेष॒जं शं नो᳚, अस्तु द्वि॒पदे॒ शं चतु॑ष्पदे ||15|| |